Saturday, September 24, 2016

पाती

प्रिय कुमुदनी,
आशा करता हूँ कि ये पत्र तुम तक जरुर पहुँचेगा , तुम इसे मेरी ओर से क्षमा याचना मान लेना | बचपन से लेकर आज तक गलतियों से सीखता आया हूँ , आज भी सीख रहा हूँ , कल भी सीखूंगा | कैसे भूल सकता हूँ , बचपन की अपने गाँव की वो अठखेलियाँ, उन रंग बिरंगी तितलियों के साथ जो मेरे घर के बगल में बने छोटे से बगीचे में विचरण किया करती थी , मैं अक्सर शाम को अकेला खेलता रहता उन तितलियों के बीच में , हाथ आगे बढ़ा कर रखता और कोई न कोई वो रंग बिरंगी अपने सौन्दर्य पर इठलाती तितलियाँ अक्सर हाथ पर आ कर बैठ जाती , मैं खेलता उनके साथ , अपना हाथ हवा में कुछ यूँ लहराता ज्यों सारी दुनिया मेरे कदमो में आ पड़ी हो , पर भूल जाता कि ये एहसास क्षणिक है , कई बार वो तितली उड़ जाती, फिर वापस आती मैं फिर यूँ ही खेलता, कई बार ये एहसास पाल लेता कि इस पर अधिकार है मेरा, तो कई बार उसे पकड भी लेता इसी अपनेपन के अधिकार के साथ ,उसके पंखो के रंग मेरे दोनों उँगलियाँ रंग देते है , पर उसे दर्द हो रहा है इसका एह्सास भी कहाँ होता था मुझे, शायद अब होता है |
तुम जब मिली थी मुझे, वो दौर ऐसा था, जिस दौर में सांसों की आवृति, दिल के धडकने की आवृति शारीरिक जरुरत के हिसाब से कुछ ज्यादा ही तेज होती है, और तुम थी भी उन तितलियों की तरह स्वछन्द , अपने आप में खोयी हुई, मैं भी खोया रहता था अपने आप में, कुमार विश्वास विष्णु सक्सेना राहत इन्दौरी को सुनते, कॉलेज के ऑडिटोरियम में किसी कम्युनिटी के मंच में कविता पाठ करते , मामूली पहचान ही हुई थी तुमसे और मैंने तुमसे अपने एक कविता पाठ में आने का न्योता दे दिया था | तुमने बड़े गौर से सुना था उस रोज मुझको और उसे नोकिया N-79 में रिकॉर्ड भी किया था , मेरी शायरी कविता इश्क की थी , पर उसका असली असर तुम पर हुआ , शायद तुम्हे इश्क हो गया था , मैं जान कर भी अंजान बनता , या कई बार ये सोच कर भी रहा जाता कि गिटार के इस दौर में किसे किसी कविता करने वाले, कहानी लिखने वाले से इश्क हो सकता , पर तुम्हारी स्वीकारोक्ति ने ये बात याद दिला दी कि इश्क तो मुझे भी हो गया था तुमसे वो भी उस पहले दिन से जिस दिन इंजीनियरिंग के दूसरे साल में तुम वो ओवरसाइज्ड कुर्ती सलवार पहने, स्पेक्टेकल धीरे से नाक पर खिसकाते मेन ब्लॉक के कंप्यूटर लाइब्रेरी में स्टूडेंट इनफार्मेशन फॉर्म भर रही थी |
अच्छा समय बहुत तेज भागता है, तुम इनफ़ोसिस में प्लेस्ड होकर मैसूर होते हुए पुणे आ गयी थी ,मैं आज भी अपनी कहानी कविताओ के साथ लखनऊ में पड़ा हुआ था, पर एक चीज जो अब बदली थी वो थी हमारी जरूरते , अब जरूरते “तुम्हारी” या “मेरी” न होकर “हमारी” हो चुकी थी | मैं तुम्हारी हर बात सुनता,मैं एक गाँव से पला बढ़ा शक्श था , तुम कहती, ड्रेसिंग सेंस नही है मुझे, मैं मान लेता, और सच भी है आज भी जब तक जरुरत न हो फॉर्मल शर्ट इन करके पहनने का सहुर नही है मुझे, तुमने सिखाया | “हमारी” जरूरतों को पूरा करने के लिए तुमने जो कहा मैंने कोशिस की, फिर एकदिन अचानक हमें अपना जरूरत बढ़ता हुआ लगा मैंने दुबारा कोशिस की कुछ पढने की, मैंने गेट क्वालीफाई किया ,रिजल्ट उतना ज्यादा अच्छा नही था , तो मैं देश के सबसे बंजर कोने में “हमारी” समय की जरूरतों के ध्यान में रखकर चला गया, पर शायद मेरी हर कोशिस में पूरी ईमानदारी नही थी | तुम कोलकाता आ गयी थी ट्रान्सफर ले कर ,मुझे भी कहा वही आने और अपनी नयी जिंदगी शुरू करने, मैं आया “हमारी” जरुरतो को ध्यान में रख कर | पर जिंदगी इतनी भी आसान कहा होती है ,वक्त की जरुरत थी और मेरी खुद की चाह भी , मैंने उधर रिसर्च लैब ज्वाइन कर लिया था ,कोलकाता यूनिवर्सिटी में तीन - चार साल बर्बाद करने के बाद ,असफलता का तमगा मेरे पास था और मैं इससे अंजान भी नहीं था , सफलता तुम्हारे पास थी , और मेरी कोशिसे अभी भी जारी थी,पर हाँ इसी बीच “कोई गिटार के दौर में कविता कहानी लिखने वालो से कहाँ इश्क कर सकता है, ये भ्रान्ति गलत न थी ये साबित कर दिया था तुमने , तुम्हे किसी गिटार बजाने वाले से इश्क हो गया कोलकाता आकर , मेरे अपनेपन के अधिकार को ये एक धक्का था, फिर मैंने वही किया जो बचपन में करता था तितलियों के साथ , मैंने तुम्हे पकड़ कर अपना बना कर रखने की कोशिस की, तुम्हे दर्द हुआ होगा , उसका एहसास तब न था अब है, अजीब मानसिक दौर से गुजरा रहा था , शायद खुद की भी एहसास करने की शक्ति ख़त्म हो रखी थी , तुम चली गयी थी जिंदगी से मेरे , मैं खुद को सम्हाल नही पाया , कुछ समय के लिए, कोई भी कई साल के रिश्ते को ऐसे खोते नही देख सकता , मैं भी उनमे से एक था , पर वक्त सबसे बेहतर मरहम है , और बिना वजह बात बात पर गालियाँ देने वाले दोस्त सबसे अच्छे डॉक्टर |
कुछ रोज पहले तुम्हारे मेसेज मिले , पता चला तुम उस गिटार वाले के साथ बंगलोर शिफ्ट हो गयी हो , ख़ुशी हुई जानकर, कोई निर्णय तो साहस के साथ लिया था तुमने, तुम सफल हो खुश हो मेरे लिए इससे बढकर कोई ख़ुशी नही हो सकती है, मैं भी 6-7 महीने पहले रिसर्च कम्पलीट करके लखनऊ आ कर बैठा हूँ, सफलता असफलता के मायने की खोज में , बस किसी रोज यूँ ही उन रास्तों में टहल आता हूँ , जहाँ कभी हम, तुम्हारी कनिष्ठा को थामे मीलो और घंटो का सफ़र किया करते थे, कभी कोई कविता , कहानी किस्सा लिख लेता हूँ तो कभी कोई किस्सा आधे पन्ने भर लिख कर फाड़ भी देता हूँ, कभी यूँ ही अकेला बैठा बड़े ध्यान से अपने अंगूठे और तर्जनी देखता हूँ कि कोई रंग वो जो तितलियाँ छोड़ जाती थी बचपन में , कहीं बाकि तो नही |
बस ये मेरा आखिरी शेर तुम्हारे लिए
नफरतों से कहीं की बादशाहत नही मिलती
कहीं कुछ बात तो जरुर है मोहब्बत में भी... !!!
तुम्हारा

Tuesday, January 12, 2016

उपसंहार

 उपसंहार

हर एक कहानी उपसंहार पर ही ख़त्म होती है भले ही कहानी का अंत दुखद हो या सुखद | लेकिन जब कहानी तुम से शुरू होकर आप पर ख़त्म हो रही हो तो सिर्फ उस कहानी के लेखक को ही ये अंदाजा हो सकता है कि कहानी का प्रतिफल क्या है ? कहानी की परिणति क्या है ? कहानी के नायक नायिका भी उसका अर्थ निकलने में सक्षम नही हो पाते है | सिर्फ वैचारिक अवधारणा के आधार पर स्वेच्छा से विभिन्न अर्थ निकाल कर उन अर्थों का विश्लेषण कर , व्याख्या कर तात्कालिक ढंग से खुश तो हुआ जा सकता है पर सच , हकीकत पर पर्दा पड़ा रहता है | हाँ ,पर वो कहानी वैचारिक मूल्यों पर अपने श्रेष्ठता की छाप छोड़ देती है पन्नो में, दिल मे, दिमाग में , मन में मस्तिष्क में | शायद यही कारण होता है कि ऐसे में उस कहानी को बार बार पन्ने पलट पढने का मन करता है और शायद ही कभी संतृप्त हुआ जा सके | फिर ऐसी कहानियों से स्वयं की लम्बी या कहें स्थायी रिश्तेदारी महसूस होने लगती है, फिर वही सिलसिला चल निकलता है स्वयं की तुलना और हजारो लाखों प्रश्नों का जो फ़ोन मैसेज तस्वीरो से होते हुए फिर उपसंहार पर आ अटकता है | सभी प्रश्न निरुत्तर कर देते है मुझे ! सभी सवाल मौन कर देते है मुझे मैंने एसा किया था तुमने एसा किया था !मैंने कुछ पाने के लिए कुछ खोने का प्रयास नही किया था ! मैंने सोचा तो था या तुम अनजान तो नही थी ! पर उपसंहार कहां है इन सवालों में ?सिर्फ सवाल हैं जवाब कहाँ है ? कहाँ है किसी कहानी का अंत या हमे तो ये कहना चाहिए कहाँ हैं कहानी का प्रारंभ ? मतलब साफ है जब प्रस्तावना भूमिका साफ नही है तो उपसंहार का सवाल कहाँ है
या फिर जो भी है तस्वीरो में तेरा चेहरा सवाल है मेरे लिए ....................तुम्हारी गहरी स्वच्छ काली ऑंखें ज्यों आज भी पूँछ लेती है “क्या तुम कविता लिखते हो “ कुछ जवाब होता है ऐसे सवालों का ,कहानियों में तो बिलकुल नही होता मेरे पास भी नही था हाँ पर मेरी ऑंखें ये जरुर जता देती है कि वो डर रही है तुम्हारे सामने इस तरह आ जाने से | क्या सच में तुम्हार व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था ? हाँ शायद .... तुम्हारे चेहरे की मुस्कान सब कुछ जीत लेने की ताकत रखती है जो बरबस तेरी हर तस्वीर में दिखाई दे रही है और मेरी हंसी को भी मजबूर कर देती है पर इससे फर्क क्या पडता है कि तुम ही तो वो पहली शख्स थी जिसने मेरी छोटी सी सफलता पर बधाई दी थी और अपनी गुस्ताखी कैसे भूलूं तुम्हे ढंग से धन्यवाद भी नही बोल पाया था हाँ पर तुम्हारी जिंदगी में तुम्हे पहली बार इस तरह के घटनाक्रम का सामना करना पडा था 5 जनवरी तारीख भी याद है मुझे ,विषय याद नही ! नक़ल करना याद है पर उस अध्यापक का नाम याद नही | तुमसे सवाल हुए मुझसे सवाल हुए पर गलती तुम्हारी नही थी अति उत्साह था मेरा नक़ल करने के लिए कॉपी ही उठा ही लिया था कॉपी करने को ,पकड़ा गया था जैसा होता है | मैने तुम्हारा बचाव करना चाहा तुमसे माफ़ी भी मांगी तुमने कहा ‘इसकी जरुरत नही है’ ,पर हाँ तुम्हारे स्वाभाव से पता नही चल रहा था शर्म महसूस करूं या गर्व | तुम्हारा स्वाभाव फिर से सवालों में खड़ा कर गया था मुझे तुम्हारी सरलता तुम्हारी विनम्रता मुझे शर्म महसूस करा रही थी मुझे कि मेरे कारण तुम्हे एसा सुनना पडा था पर मेरी निर्लज्जता इस बात पर गर्व महसूस करा रही थी ‘चलो तुमसे थोडा करीब तो आया ‘|
फिर भी तुमसे कहूँ इन्तजार की इन्तहा भी होती है पर मुझे पता नही इंतजार अच्छा लगता था ,तुम्हारा तुम्हारी तस्वीर , तुम्हारा चेहरा ,तुम्हारे मैसेज तुम्हारी मुस्कान तुमसे जुडी हर की यहाँ तक कि तुम्हारे नाम को सुनने का इन्तजार भी अच्छा लगता है| वो कविता याद है तुम्हे जो कभी तुझे बिना डरे पहली बार सुनी थी , शायद नही होगी फिर से कहता हूँ
दिन के उजियारे में भी जब दिल पर तेरी यादें भारी पड़ती है |
सच कहता हूँ तब ही रातें सबसे घनी अँधेरी लगती है ||
ऐसे में बस तुझको , अपना कहने का मन करता है
तभी अकेले संग तेरे दो पल चलने को जी करता है
जब यार छेड़ते है मुझको , क्यूँ हर पल तेरी यादें होती है
सच कहता हूँ न जाने , क्यूँ तेरी यादें सबसे प्यारी होती है |||||
दिन के उजियारे में भी जब दिल पर तेरी यादें भारी पड़ती है |
सच कहता हूँ तब ही रातें सबसे घनी अँधेरी लगती है ||
जब रात जागते रात जागते कविता लिखते कटती है
जब अखियों को बस तेरी बस तेरी सुधि रहती है
जब दिल पर तेरी दिलकश आवाजों की मधुर बांसुरी बजती है
सच कहता हूँ तब बृज की गलियां सूनी सूनी लगती है ||||||
दिन के उजियारे में भी जब दिल पर तेरी यादें भारी पड़ती है |
सच कहता हूँ तब ही रातें सबसे घनी अँधेरी लगती है ||
इस कविता में भी आपने पात्र खोजने शुरू कर दिए थे ,तुम हो , हम हो फिर किसी तीसरे का वजूद हो सकता है क्या ?भावनाए अक्सर इसी तरह का खेल खेलती है जब छुपाने की कोशिश करो तब लोग नासमझ हो जाते है और अगर भावनाए दिखाने की कोशिश करो जताने की कोशिश करो तो लोग आपको नासमझ समझते है पर एक समझने योग्य है कि लोग अक्सर भावनाओ की क़द्र नही करते शब्दों की करते है तुमने तो उसकी भी कोशिश नही थी |
पर प्रश्न वही उठता है इस सबसे कहीं कहानी बनती है | कहानी क्या भूमिका या प्रस्तावना भी नही बनती तो क्या लिख दूँ की कहानी पूर्ण हो जाये कोई ऐसा ट्विस्ट भी तो नही है कि मसाला सम्पूर्ण हो जाये कहानी परिणति तक पहुच जाये | बस हाँ मन की संवेदनाये तुम भी पढ़ती थी हम भी पढ़ते थे | भावो का अलंकरण हम भी देखते थे तुम भी देखती थी | आँखों से मौन सवाल तो तुम भी पूछती थी हम भी पूछते थे पर लफ्ज लब पर क्यूँ नही आते ...पता नही पर आजकल कहानी मौन किस्सों पर नही लिखी जाती | निशब्द स्वीकृतियों पर भी किस्से नही बनते | बस वो शायरी याद आ गयी जो तेरे किसी प्रश्न के जवाब पर मैने भेजी थी पर उसका अर्थ भी मुझे ही समझाना पड़ा था |
“मेरे लफ्जों की कीमत बढ़ जाये थोड़ी सी
ये बातें पुरानी बहाने हैं उसी के
फकत मेरे लफ्ज तो विरले हुए इतने
कि कुछ कहने जाऊ तो उड़ जातें है हंसी में “
तुमने अर्थ पूछा था मैंने सविस्तार बतलाया तो तुमने बड़ी संजीदा टिप्पणी लिख दी थी
“आपके शब्दों की कीमत कोई कम नही है मेरे लिए “
बस अपने इतना कह दिया काफी था मेरे लिए | अब किसी भूमिका किसी प्रस्तावना की जरुरत नही थी इस कहानी को | और रही बात उपसंहार की, तो उपसंहार तो किसी कहानी किसी निबंध किसी चर्चा का निष्कर्ष हो सकता है और शायद अभी ये कहानी के अंत का समय तो बिलकुल नही है | 

हाँ संवेदनाहीन हूँ मैं

हाँ संवेदनाहीन हूँ मैं
हाँ संवेदनाहीन हूँ मैं
कितना
शायद इतना 
कि याद नही है मुझको
कब सिसकियों ने
मांगी थी पनाह
आखिरी बार मुझसे |
ना याद है शायद
वो रुंधा हुआ गला
ना आंख से गुजरा
या ठहरा हुआ
कोई आखिरी आंशू |
शायद संवेदनाहीन हूँ मैं
हाँ सच है ये भी
ना रोया था तब
जब खोया था
किसी अपने को मैंने
या खोया था उसको
जिसे अपना कहना
नही आया मुझको |
हाँ सच है,
संवेदनाहीन हूँ मैं |
हाँ संवेदनाहीन हूँ मैं |........

Thursday, August 20, 2015

“ मुझ सा सरकारी अफसर भी बदसूरत लग रहा है तुमको सनम "

हमारे कालेज के साथ के हमारे एक मित्र है शर्मा जी जाति के ब्राह्मण एक दम टिपिकल ब्राह्मण बस जनेऊ, शिखा और रुद्राक्ष धारण नही करते| प्राइवेट कालेज से पढाई करी इंजीनियरिंग की ,और अभी नौकरी कर रहे है राजस्थान सरकार की| यही राजस्थान के सिरोही जिले में बिजली विभाग में कनिष्ठ अभियंता के पद पर ,शायद जल्दी ही सहायक अभियंता हो जायेगे | उनके गुण बखानो तो इतना ही कि दिल के बड़े साफ है और दुसरा बड़े ही जमीं से जुड़े हुए आदमी है ,बाकि शक्ल में हमसे भी थोड़े से गये गुजरे है और प्राइवेट में नौकरी वाले इन्सान उनके लिए दोयम दर्जे का प्राणी है | तो बात उस जमाने है की जब हम लोग कालेज में थे हा उसी प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज में तो हमारे साथ में एक कन्या पढ़ती थी वो भी सरनेम की शर्मा थी और वर्ग से ब्राहमण | उनकी तारीफ में जितना लिख पाउँगा कम होगा सुशील शिष्ट मृदुभाषी , हर कला में पारंगत , क्या लेखन था उनका शायद इतना बेहतरीन कि लेखक होकर भी मैं उनका भक्त था वो कई बार लोग ऐसा कहते है कि कवि और लेखक अपने समकालीन किसी लेखक की तारीफ नही कर सकते ईर्ष्या के कारण, गीत संगीत नृत्य कला चित्रकला में पारंगत , पूछने पर सिर्फ इतना पता चला था शायद प्रशिक्षको से इन सब कलाओ की शिक्षा ली हुई थी , और तो और सबसे अधिक जो बात मुझे पसंद थी वो ये कि इतना ज्ञानी होने के बाद भी भी हद से ज्यादा अंतर्मुखी हा हा अग्रेजी में इंट्रोवर्ट भी कहते है भाई | नही तो आज कल की पीढ़ी में अगर कोई शख्स इतना ज्ञानवान और कलाकार हो जाता है तो अपने आप से भी ढंग से बात नही करता है |
अभी कुछ दिन पहले की ही बात है अचानक एक दिन देखा फेसबुक के स्टेटस पंडित जी की प्रोफाइल को सूट नही कर रहे है सुबह से शाम हो गयी १० से पंद्रह दर्द से डूबी शायरी से उनकी टाइमलाइन ओवरफ्लो हो गयी है | एक शेर में तो उन्होंने अपनी बदनसीबी का रोना रो दिया वो भी बिलकुल देशी शायर की तर्ज में
“ मुझ सा सरकारी अफसर भी बदसूरत लग रहा है तुमको सनम
कोई तो खोट रहा होगा मेरी मलिका-ऐ –ख्वाब तेरी ऐनक में भी |”
कई शायरी और भी थी कुछ भानुमती का कुनबा थी और कुछ गूगल बाबा की मेहरबानी , खैर मै ठहरा जिज्ञासु, घुसु , टीआरपी पिपासु पत्रकार टाइप का इंजिनियर ,मुझसे रहा न गया मैं अपनी जिज्ञासा शांत करने को पूछ ही बैठा “पंडित जी आज तो फिराख गोरखपुरी को भी फ़ैल कर दिए ,सब कुछ ठीक है न |" पंडित जी भी सीधे सादे आदमी हम प्राइवेट नौकरी वालो पर तंज कसते बोल पड़े “सिंह साहब तुम का जानो हम सरकारी अफसरों का दर्द , सुबह शाम सीनियर की सुनो , कभी मीडिया की गाली सुनो , कभी जनता की सुनो और आज कल तो ये एमएनसी में जॉब करने वाली लड़कियां भी भाव नही देती“
“ऐसा कौन सा जख्म दे गया भाई , अरे थोडा तफसील से बताओ पंडित जी “ मन के पुलकित भावो को बमुश्किल रोकते हमने भी चुटकी ले ली और मन ही मन ये सोच कर बचपन वाली स्टाइल में कालर को उठाने वाली फूंक मारी “ कि चाहे जितने साल राजस्थान में रह लो साला चकल्लस में हम कनपुरियों का कोई जवाब नही है “
फिर तो जैसे पंडित जी के भावों के सारे बांध बह गये “ अरे सिंह भाई यार वो अपने साथ कालेज में एक लड़की थी शर्मा , हमारे जाति की थी किसी सॉफ्टवेर कंपनी में काम कर रही है आज कल ........
“अरे कौन यार अपने साथ तो दो तीन थी भाई “ मैंने बीच में टोका
अरे भाई श्रुति शर्मा तुम्हारे सेक्शन में ही तो थी
“अच्छा अच्छाह्ह्ह्हह “ अब बात में थोडा और रस आ गया था और दिलचस्पी भी बढ गयी थी अपनी तो उन पर पहले से ही दिलचस्पी कितनी थी ऊपर के गुणों में बता ही चुका हूँ |
खैर पंडित जी ने किस्सा आगे बढाया
“तो वो आज कल किसी कंपनी में है प्राइवेट ही है”
अबे पंडित हम साथ में इंजीनियरिंग करे है हमे मालूम है कि सॉफ्टवेर कंपनी लगभग सब प्राइवेट ही है और वो जिस कंपनी में है वो अच्छी खासी एम्एनसी है | प्राइवेट कह कह के का मजा ले रहे हो बे
पंडित जी थोड़े तुनक गये | पर अपन टीआरपी पिपासु आदमी ऐसे कहाँ छोड़ने वाले थे फिर थोड़ी देर मांडवली करी , थोडा चने के झाड पर चढ़ाया तो फिर पंडित जी चालू हुए “ भाई कालेज के जमाने से पसंद थी मुझे , पर कभी कह नही पाए बस कभी कभी हाय बाए हो जाती थी फिर फेसबुक पर कभी कभी बातचीत हो जाती थी दो दिन पहले मैंने अपने मन की बात बोल दी यार फेसबुक पर चैटिंग में और उसने उस ने हमारे जैसे सरकारी अफसर को बोल दिया कभी शकल देखी आइने में “
मेरे मन में एक साथ दो दो लड्डू फूटे एक तो वो सरकारी अफसर की बेइज्जती और दूसरा कारण लिख कर अपनी नाकदरी नही करानी है मुझे |
हास्य अलग है परिहास अलग है फिर भी इस बातचीत के बाद एक किस्सा मन में उठा “ क्या सच में क्या आइना ही हर किसी की वास्तविक तस्वीर पेश करता है , क्या सच में कोई इन्सान कैसा है इसका निर्धारण सिर्फ उसका रूप तय करता है ,क्या सच में कोई शक्स इसलिए बुरा हो सकता है कि वो स्मार्ट,हैण्डसम नही दीखता है ,खूबसूरत नही दीखता है ,क्या सच में हमे किसी पर इस बात पर तरस आना चाहिए कि उसकी पत्नी का रंग सांवला है या फलानी के पति का रंग गेहुँआ न होकर श्यामवरनी है |
शायद नही फिर भी सामाजिक स्वीकार्यताओं में प्राथमिकता वर्ण को क्यूँ, सिर्फ आइने में दिख रही तस्वीर को ही क्यूँ ? क्या सच में हर हमेशा सूरत को सीरत पर तरजीह मिलेगी ?
मेरा तो मानना है आइना में दिखने वाली तस्वीर सिर्फ पुराने ज़माने की फोटो से पहले बनने वाले उस नेगटिव की तरह है जिससे बहुत बेहतरीन तस्वीर बनती है ,शायद लोगो को ये सीखना होगा की किसी के वर्ण रंग और रूप देखकर उस इन्सान के व्यक्तित्व को तौलना नाइंसाफी है |
-विवेक सिंह

Tuesday, February 11, 2014

अपनापन


अपनापन

“छोटू ये चाकलेट आपके लिए और स्वीटी ये आपके लिए , ये टेनिस किट आप के लिए ” अपने बैग से सारा सामान राज ने निकाल कर बच्चों में बाँट दिया था | “अगर आप जैसे कुछ लोग और हो तो समाज में वास्तव में बदलाव आ सकता है” तभी अपनालय की संरक्षिका मालती  ने  राज को बच्चो के बीच  खेलते देख कर आवाज दी | “ समाज की चिंता तो समाज ही कर सकता है मैडम मालती ,हम तो बस अपने हिस्से का प्यार दे रहे है और इन्हें सिर्फ प्यार की जरुरत है ” राज ने पीछे मुडते हुए प्रत्युत्तर में  कहा था | आज शुक्रवार का दिन था और राज की ये शाम अपनालय के बच्चों के बीच बीतती थी | हर शुक्रवार की शाम अपनालय में बिताना राज की जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन चुका था | अपनालय अनाथ बच्चो का पालन पोषण करने वाली एक संस्था है और  ये घर उन बीसों बच्चों  का आवास था जिनके सर पर माँ बाप का साया नही होता ,खाने के दो जून की रोटी और पहनने के लिए वस्त्र | इन सभी बच्चों का भरण –पोषण अपनालय ट्रस्ट द्वारा किया जाता था | शहर से कुछ दूर बाहर स्थित इस अनाथ आश्रम के नाम में भी प्यार जुडा था | अपनालय शब्द से सिर्फ प्यार की अनुभूति और अपनापन झलकता था | अपनालय का सुन्दर भवन शहर से गुजरने वाले हर शख्स के लिए कौतूहल का विषय अवश्य होता था | जितना प्यारा नाम था उतना ही अच्छा घर का डिजाईन , एक ओर छोटा सा पार्क और बीचो बीच मुख्य आवास | हाँ बस धीरे –धीरे समय के दुष्चक्र ने बाहरी दीवारों को थोडा सा रंगहीन जरुर कर दिया था | पर प्यार अभी भी वैसा ही था ,मालती और उनके सहायक आज भी उसी तत्परता से वहाँ का अपनापन खोने नही देते थे , और सब प्रयास पूर्वक उन्हें अपनापन देने की कोशिश करते जिनसे ईश्वर ने बचपन में ही प्यार छीन लिया था | यहाँ आकर राज को अजीब सी शांति मिलती थी ,तभी शायद सप्ताह की व्यस्त दिनचर्या से एक दिन निकाल कर खुशी की खोज में एक शाम बिताने आ जाता था ,ऐसा नही था कि राज के जीवन में किसी बात की कमी थी जिंदगी में बिन मांगे ही ईश्वर ने सारी खुशियाँ उसके दामन में समेंट कर दी हुई थी | राज एक इंजिनियर था ,१० वर्ष पूर्व उसकी इच्छानुसार ही उसका विवाह  सबकी सहमति से श्रुति से हुआ था | श्रुति भी एक इंजिनियर थी| श्रुति और राज कॉलेज फ्रेंड थे , वहीं से दोनों के बीच प्यार हुआ फिर शादी| कॉलेज दिनों से लेकर आज तक दोनों की सिर्फ लोगो ने प्रशंसा ही की थी | अब उनके ६ वर्ष का एक पुत्र अनय भी था | पर अब भी न  राज की स्मार्टनेस पर कोई संदेह था और न ही श्रुति की खूबसूरती पर | बस अनय के पैदा होने के बाद से श्रुति ने जॉब छोड़ दिया था और दिन भर अपने घर को सजाने सवाँरने में  लगी रहती थी |उनकी जिंदगी में सब कुछ व्यवस्थित ढंग से चल रहा था | ईश्वर ने खुशियों का हर एक रंग उनके आंगन में बिखेर रखा था | उसकी जिंदगी बेहद प्यार करने वाली पत्नी और बेहद प्यारे पुत्र संग आबाद थी| न ही कोई खुशी अधूरी थी, न ही किसी नई खुशी की दरख्वास्त |
   पर इन यतीम बच्चों से उसे अपनापन था , उसे यह बहुत बेहतर महसूस होता था | कभी –कभी  राज के साथ श्रुति और अनय भी यहाँ आते | राज की ये शाम बच्चों  के साथ खेलते मस्ती करते बीतती थी | उन बच्चों के बीच राज स्वयं बच्चा बन  जाता था , हाँ बच्चा ही तो था  कभी बच्चो के लिए क्रिकेट कोच होता , कभी सांता क्लॉज, तो कभी रोनाल्डो और न जाने क्या क्या सिर्फ बच्चों के लिये | और यहाँ के बच्चे भी राज से प्यार करने लगे थे ,उन्हें भी  शुक्रवार का बड़ी बेसब्री से इंतजार रहता  था |  हर शुक्रवार की शाम ऑफिस से लौटते राजेश वहाँ पहुँचता था , सब उसे घेर लेते और राज भी उन्हें निराश नही करता ,वह भी उनके लिए ढेर सारे गिफ्ट लेकर ही जाता था | वैसे तो सारे बच्चे बहुत प्यारे थे लेकिन राज को अविरल और अदिति से लगाव कुछ ज्यादा ही हो गया था | उसने दोनों के प्यार के नाम भी रख दिए थे , छोटू  और स्वीटी | स्वीटी बेहद प्यारी ३ वर्ष की बच्ची थी | वह राज के हरदम पास ही रहती जब तक वह वहाँ रहता | ये शाम भी कुछ ऐसी ही थी , हमेशा की तरह |
खैर रात का खाना अपनालय में सबके साथ खाकर राज वहाँ से चल दिया था | रास्ते में कभी अनय , कभी स्वीटी ,कभी श्रुति और कभी अपने बचपन के ख्यालो में डूबा जल्दी से घर पहुँचना चाह रहा था, क्योकि जानता था की घर में श्रुति भी डिनर पर उसका इंतजार कर रही है | कुछ देर का वक्त लगा , राज घर पहुंच गया था | डोर बेल बजाने से पहले ही श्रुति ने दरवाजा खोल दिया ज्यों दरवाजे पर खड़ी ही राज का इंतजार कर रही हो | अंदर जाते हुए राज ने चिर -परिचित अंदाज में कहा था  “ गुड ईवनिंग स्वीटहर्ट ” | बदले में उसे भी चिर-परिचित जवाब मिला था “ आज फिर लेट ” |  राज ने थोडा अजीब तरह से देखा जैसा कहना चाह रहा हो ‘कि क्या यार मैं  पांच बजे घर आऊँ तब भी लेट और रात के नौ बजे तब भी’? पर कहा नही क्योकिं आज के दिन थोडा सा लेट जरुर था | श्रुति ने उससे जल्दी से कपडे बदल कर, फ्रेश होकर डिनर पर आने को कहा था | राज को भी ये बताने कि जरुरत नही थी कि वो कहाँ से आया था क्योकि आज शुक्रवार का दिन था और श्रुति उसकी आदतों से अनजान न थी | थोड़ी देर में राज नहा-धो कर फ्रेश होकर डायनिंग टेबल पर आ गया था | श्रुति तब तक किचेन में थी शायद खाना गर्म कर रही थी | राज को डिनर का बिल्कुल भी मन नही था , पर श्रुति को मना भी कैसे कर सकता था | डिनर करते हुए ही उसने अनय के बारे में पूँछा  तो श्रुति ने बताया अभी तक टी. वी. देख रहा था शायद सो गया है| खाने कि जगह कहाँ थी सिर्फ उपक्रम करके  वह श्रुति के पास बैठा हुआ था | थोड़ी देर में श्रुति ने डिनर खत्म किया था और किचेन , डायनिंग टेबल साफ करने में लग गयी थी | तब तक राज अनय के पास आ गया था ,अनय टी.वी.देखते हुए  सोफे पर ही सो गया था और शायद श्रुति टी. वी. ऑफ कर गयी होगी |राज ने अनय  को उठा कर बेड रूम में सुला दिया था और खुद भी वहीं लेट गया था | पता नही क्यूँ उसे अनय का अकेलापन , अपने बचपन का अकेलापन  लगता था | जब भी वो अनय के साथ होता  उसे बड़ी शिद्दत से उसकी जिंदगी का अकेलापन महसूस होता था | उसे लगता कि अनय को एक दोस्त की जरुरत है अकेला खेलता है या फिर श्रुति के साथ,पर श्रुति जब व्यस्त होती तो उसे जबरन अकेले रहना पडता है | फिर राज को लगता कि उसका बचपन भी तो कुछ ऐसा ही था , वो भी तो बचपन में खुद के अकेलेपन को दूर करने के लिए खिलौनों का सहारा लेता था और फिर खीझ में कभी-कभी उन्हें तोड़ भी देता था | धीरे-धीरे जब खिलौने बंद हो गए तो वह और भी अकेला हो गया था | जिंदगी के उन  दिनों की याद उसे आज भी आती है | उसकी जिंदगी का जो खालीपन , जो श्रुति के आने के पहले तक था , वो उसे मन ही मन में कंपा देता था | वो स्वीटी का खोना ,वो १५ साल का समय ,७ साल की  बोर्डिंग,फिर बी.ई. तक बिना दोस्त के , शायद जिंदगी का सबसे बड़ा शून्य था जिसे अब श्रुति और अनय ने पूरा तो कर दिया था , पर भुलवा नही सके ........| वो अनय के साथ ऐसा नही होने देगा ...................|
इन्हीं भावों में खोया था कि श्रुति ने आवाज दी ,राज अनय के बेडरूम की ए.सी. को स्लीप मोड में लगा कर अपने बेडरूम में आ गया और टेबल लैम्प के उजाले में कोई किताब पलटने लगा , थोड़ी देर में श्रुति नाइट गाउन में आई  तो राज ने चुटकी ली थी “ क्या बात है आप उम्र ढ़लने के साथ और खूबसूरत होती जा रही है ” श्रुति के चेहरे पर एक चिर परिचित शर्मीली मुस्कान तैर गयी थी और लेटते हुए प्रत्युत्तर में प्यारी सी धौल राज की पींठ पर जमा दी थी|
फिर दोनों बातों में मशगूल हो गए  कभी अनय की स्कूलिंग , कभी ऑफिस ? फिर अपनालय विजिट , कैसे क्रिकेट खेला फिर फुटबाल  फिर डिनर भी......| श्रुति उसकी हर एक बात की यूँ  प्रतिक्रिया कर रही थी जैसे उसका वहाँ मौजूद ना होना उसे खल रहा हो  | फिर राज ने बातों ही बातों में उससे पूंछा –
तुम्हे स्वीटी कैसी लगती है ? कौन ?अदिति? वो अपनालय में ? हाँ ?वेरी क्यूट – बहुत प्यारी है, पर तुम ऐसे  क्यूँ पूछ रहे हो?
“बस पता नही तुम क्या सोंचो ..........” राज ने कुछ अनकहा छोड़ दिया था, फिर कहा “मैं उसे एडाप्ट करना चाहता हूँ ” श्रुति को थोडा अजीब सा लगा , पता नही क्यूँ ,वो उठ कर बैठ गयी थी , पर राज बोले जा रहा था –मैं कई दिन से तुमसे कहना चाह रहा था ......... पर क्यों ? श्रुति ने बीच में ही रोककर ही उससे पूँछा |
“पता नही क्यूँ मुझे अनय का अकेलापन हमेशा परेशान करता है” श्रुति राज ने कहा था |
तो हम दूसरे बच्चे के बारे में सोंच सकते है ? पर राज जानता था कि भावावेग के अतिरेक में श्रुति ऐसा कह गयी थी | शायद दोनों जानते थे कि अनय के पैदा होते समय कितनी समस्या हुई थी | बड़ी मुश्किल से ही डॉक्टर दोनों को सुरक्षित बचा पाए थे.........|
 पूरे कमरे में कुछ समय के लिए अजीब सा सन्नाटा पसर गया था | कुछ देर बाद राज ने धीरे से पूंछा था कि तुम्हे उसे एडाप्ट करने में समस्या क्या है श्रुति ? श्रुति कि आवाज उससे भी धीरे हो चली थी “ राज तुम जानते ........ पर मैं चाहती हूँ  मेरे बच्चों से मेरा अपनापन जुडा हो | पता नही अभी ठीक , पर मैं कभी बदल गयी ,कमजोर पड़ गयी.......| मैं बस इतना चाहती हूँ कि हमारे बच्चो से हमारे किसी का रक्तसंबंध हो, किसी एक का अपनापन जुड़ा हो..राज ..........| अगर मुझमे कुछ कमी हैं तो उसकी सजा तुम्हे क्यूँ ....? उसकी सजा हमारे बच्चो को क्यों .........? ” उसके चेहरे में आंसुओ कि धार बह चली , वो शायद कुछ कहना चाह रही थी , पर शायद सिसकियों कि दबिश ने उसकी आवाज को और भी दबा दिया था |
 राज ने श्रुति के हाथ को अपने हाथ में थामते हुए दलील दी थी श्रुति मुझे अपने प्यार पर पूरा भरोसा है  और तुम भी मेरा प्यार हो वो भी पहला ,अपनापन किसी रक्तसंबंध का मोहताज नही होता है ,श्रुति | अपनेपन के लिए एक बेहतर दिल चाहिए , जो एक इंसान को बेहतर बनाता है और इस बारे में तुम्हारे बारे में मुझसे बेहतर कौन जान सकता है श्रुति.............. ? राज ने श्रुति कि आँखों में आ रहे आंसुओ को पोछते हुए कहा था | श्रुति तुम हमेशा सोशल सर्विस कि पक्षधर रही हो , तुमने हमेशा मेरे इन विचारों का समर्थन किया हैं ... राज लगातार बोल रहा था.. अगर  हमारे इस प्रयास  से एक बच्चे को  सहारा मिलता है तो बुरा क्या है ? समाज हमसे बनता है .. शायद समाज के लिए ये एक नयी प्रेरणा हो और फिर हमारे इस कदम से एक बेसहारा को माँ – बाप का प्यार मिलेगा और अनय को एक दोस्त - बहन का.....|
बहुत देर तक राज श्रुति को इसी तरह समझा रहा था | श्रुति भी उसी बातों का जवाब देना चाह रही थीं पर राज की दलीलों की काट उसके पास नही थी और राज भी जानता था कि श्रुति भी उसकी तरह भावुक है ; वह उसके कहने को टाल नही पायेगी , पर राज स्वीटी को श्रुति पर थोपना नही चाहता था | राज प्यार को प्यार से जीतना चाहता था और शायद वो इस कला में माहिर भी था|
श्रुति को भी महसूस होने लगा था कि शायद राज ठीक कह रहा है , किसी पराये को अपनापन  देने में बुरा क्या है ? किसी यतीम को माँ – बाप का प्यार देने में क्या हर्ज है ? इसीलिए शायद थोड़ी देर बाद श्रुति ने डबडबाती आँखों संग मुस्करा कर राज  को सहमति दे दी थी | राज को तो ज्यों सारी खुशियाँ मिल गयी हों ,उसने तुरंत श्रुति को गले से लगा लिया था |
राज इधर दो तीन दिन ऑफिस से छुट्टी ले कर , सारी  क़ानूनी कार्यवाही पूरी करके स्वीटी को उसके नए घर ले आया था |श्रुति भी उसकी पूरी मदद कर रही थी | स्वीटी को अपने नए घर , नए मम्मी पापा, नए भाई के साथ सामंजस्य बिठाने में कुछ वक्त जरुर लगा था , पर जल्द ही अपने भाई के साथ हँसने ,खेलने लगी थी , कभी रेलगाड़ी के खिलौने तो कभी कुछ और ,पर सिर्फ प्यार था ,अपनापन था | स्वीटी रूपी कली की मुस्कराहट से पूरा घर महक उठा था | राज खड़े होकर देख रहा था कभी स्वीटी – अनय हँसते , कभी चुप, तो कभी चिल्ला पडते |
उन्हें साथ देखकर राज को अपनी जिंदगी की २५ वर्ष पुरानी यादें ताजा हो गयी थी | जब वह १० वर्ष का था, तभी उसकी बहन की मृत्यु एक हादसे में हो गयी | उसकी कमी उसे आज भी सालती थी , उसकी प्यारी यादें आज भी उसे कचोटती हैं | शायद तभी आज भी रक्षाबंधन को कलाई पर राखी का इन्तजार रहता है  तो कभी उसे बस अपने साथ खेलती , गुस्साती २५ वर्ष पुरानी तुतलाती , इठलाती  ६ वर्ष कि स्वीटी याद आ रही थी | अनय स्वीटी को साथ देखकर राज को बचपन कि कडुवी – मीठी यादें ताजा हो गयी थी और अनचाहे ही आँसू की दो बूंद टपक पड़ी थी | तभी राज ने अपने कंधे पर चूडियों कि खनखन करता हुआ एक हाथ महसूस किया था और फुसफुसाती आवाज भी , श्रुति की –
थैंक्स ?  किसलिये ? छ: साल बाद फिर से मातृत्व का सुख देने के लिए ? थैंक्स टू यू टू ? किसलिए ? “हमे और हम दोनों के परिवार को इतना अपनापन देने के लिए ” राज ने श्रुति के हाथ को धीरे से दबाते हुए कहा था |
(विवेक सचान )
(लखनऊ)

Thursday, January 30, 2014

मैं तेरा हूँ आज भी.....


मैं तेरा हूँ आज भी.....

बहुत से ख्वाब मैंने
टूटते बिखरते देखे है
इन आँखों से 
तुम भी एक हिस्सा हो 
उसी में से किसी एक का
न चाह कर भी ये कड़ी टूट सी गयी थी 
घडी की सुइयां और रातें भी
हमसे रूठ सी गयी थी 
न बदनीयत था मैं 
न मेरी ऑंखें न मेरी बातें 
हाँ बदहवास था मै, 
मेरे जज्बात मेरा प्यार
..............
मै सही था वर्षों से तुम मेरी नही थी कभी 
मै तेरा हूँ आज भी.......
बस एक नया ख्वाब फिर से 
मेरी डायरी कि शोभा बडा रहा है
पुरानो कि तरह पूरा होने के इंतजार में...
..तुम्हारे इंतजार में..... विवेक सचान 

http://www.poemhunter.com/poem/-5097/

Wednesday, January 29, 2014

क्या तुम कविता करते हो...?

तुम्हारा सवाल कौधता है जेहन में मेरे...
तब से 
जब से
पूछा था तुमने 'क्या तुम कविता करते हो..'
तब जवाब नही था पास मेरे 
निशब्द था मै 
मौन था मैं
अपनी भावनाओ की तरह 
पर आज कहता हूँ 
शब्द शब्द को चुनता हूँ...
मैं नाम से तेरे................
हाँ मै कविता करता हूँ..
बस इंतजार में तेरे....
हाँ मैं कविता करता हूँ बस इंतजार में तेरे......
मेरा हर एक शब्द तेरा गुलाम है...
हर नफस में बस तेरा नाम है....
कुछ सवाल और उनके जवाब 
कभी नही सुना था मैंने..
तुम जो उतर गयी थी नजरों में..
फिर कोई और नही चुना था मैंने...
जिंदगी में शब और सहर का...
अब कोई ठिकाना ना था...
रातें बीती थी सुधियो में या सपनों में तेरे.......
दिन कहते बीत गए मै हूँ इंतजार में तेरे.....
हाँ मै हूँ इंतजार में तेरे....
............................विवेक सचान.....