Saturday, September 24, 2016

पाती

प्रिय कुमुदनी,
आशा करता हूँ कि ये पत्र तुम तक जरुर पहुँचेगा , तुम इसे मेरी ओर से क्षमा याचना मान लेना | बचपन से लेकर आज तक गलतियों से सीखता आया हूँ , आज भी सीख रहा हूँ , कल भी सीखूंगा | कैसे भूल सकता हूँ , बचपन की अपने गाँव की वो अठखेलियाँ, उन रंग बिरंगी तितलियों के साथ जो मेरे घर के बगल में बने छोटे से बगीचे में विचरण किया करती थी , मैं अक्सर शाम को अकेला खेलता रहता उन तितलियों के बीच में , हाथ आगे बढ़ा कर रखता और कोई न कोई वो रंग बिरंगी अपने सौन्दर्य पर इठलाती तितलियाँ अक्सर हाथ पर आ कर बैठ जाती , मैं खेलता उनके साथ , अपना हाथ हवा में कुछ यूँ लहराता ज्यों सारी दुनिया मेरे कदमो में आ पड़ी हो , पर भूल जाता कि ये एहसास क्षणिक है , कई बार वो तितली उड़ जाती, फिर वापस आती मैं फिर यूँ ही खेलता, कई बार ये एहसास पाल लेता कि इस पर अधिकार है मेरा, तो कई बार उसे पकड भी लेता इसी अपनेपन के अधिकार के साथ ,उसके पंखो के रंग मेरे दोनों उँगलियाँ रंग देते है , पर उसे दर्द हो रहा है इसका एह्सास भी कहाँ होता था मुझे, शायद अब होता है |
तुम जब मिली थी मुझे, वो दौर ऐसा था, जिस दौर में सांसों की आवृति, दिल के धडकने की आवृति शारीरिक जरुरत के हिसाब से कुछ ज्यादा ही तेज होती है, और तुम थी भी उन तितलियों की तरह स्वछन्द , अपने आप में खोयी हुई, मैं भी खोया रहता था अपने आप में, कुमार विश्वास विष्णु सक्सेना राहत इन्दौरी को सुनते, कॉलेज के ऑडिटोरियम में किसी कम्युनिटी के मंच में कविता पाठ करते , मामूली पहचान ही हुई थी तुमसे और मैंने तुमसे अपने एक कविता पाठ में आने का न्योता दे दिया था | तुमने बड़े गौर से सुना था उस रोज मुझको और उसे नोकिया N-79 में रिकॉर्ड भी किया था , मेरी शायरी कविता इश्क की थी , पर उसका असली असर तुम पर हुआ , शायद तुम्हे इश्क हो गया था , मैं जान कर भी अंजान बनता , या कई बार ये सोच कर भी रहा जाता कि गिटार के इस दौर में किसे किसी कविता करने वाले, कहानी लिखने वाले से इश्क हो सकता , पर तुम्हारी स्वीकारोक्ति ने ये बात याद दिला दी कि इश्क तो मुझे भी हो गया था तुमसे वो भी उस पहले दिन से जिस दिन इंजीनियरिंग के दूसरे साल में तुम वो ओवरसाइज्ड कुर्ती सलवार पहने, स्पेक्टेकल धीरे से नाक पर खिसकाते मेन ब्लॉक के कंप्यूटर लाइब्रेरी में स्टूडेंट इनफार्मेशन फॉर्म भर रही थी |
अच्छा समय बहुत तेज भागता है, तुम इनफ़ोसिस में प्लेस्ड होकर मैसूर होते हुए पुणे आ गयी थी ,मैं आज भी अपनी कहानी कविताओ के साथ लखनऊ में पड़ा हुआ था, पर एक चीज जो अब बदली थी वो थी हमारी जरूरते , अब जरूरते “तुम्हारी” या “मेरी” न होकर “हमारी” हो चुकी थी | मैं तुम्हारी हर बात सुनता,मैं एक गाँव से पला बढ़ा शक्श था , तुम कहती, ड्रेसिंग सेंस नही है मुझे, मैं मान लेता, और सच भी है आज भी जब तक जरुरत न हो फॉर्मल शर्ट इन करके पहनने का सहुर नही है मुझे, तुमने सिखाया | “हमारी” जरूरतों को पूरा करने के लिए तुमने जो कहा मैंने कोशिस की, फिर एकदिन अचानक हमें अपना जरूरत बढ़ता हुआ लगा मैंने दुबारा कोशिस की कुछ पढने की, मैंने गेट क्वालीफाई किया ,रिजल्ट उतना ज्यादा अच्छा नही था , तो मैं देश के सबसे बंजर कोने में “हमारी” समय की जरूरतों के ध्यान में रखकर चला गया, पर शायद मेरी हर कोशिस में पूरी ईमानदारी नही थी | तुम कोलकाता आ गयी थी ट्रान्सफर ले कर ,मुझे भी कहा वही आने और अपनी नयी जिंदगी शुरू करने, मैं आया “हमारी” जरुरतो को ध्यान में रख कर | पर जिंदगी इतनी भी आसान कहा होती है ,वक्त की जरुरत थी और मेरी खुद की चाह भी , मैंने उधर रिसर्च लैब ज्वाइन कर लिया था ,कोलकाता यूनिवर्सिटी में तीन - चार साल बर्बाद करने के बाद ,असफलता का तमगा मेरे पास था और मैं इससे अंजान भी नहीं था , सफलता तुम्हारे पास थी , और मेरी कोशिसे अभी भी जारी थी,पर हाँ इसी बीच “कोई गिटार के दौर में कविता कहानी लिखने वालो से कहाँ इश्क कर सकता है, ये भ्रान्ति गलत न थी ये साबित कर दिया था तुमने , तुम्हे किसी गिटार बजाने वाले से इश्क हो गया कोलकाता आकर , मेरे अपनेपन के अधिकार को ये एक धक्का था, फिर मैंने वही किया जो बचपन में करता था तितलियों के साथ , मैंने तुम्हे पकड़ कर अपना बना कर रखने की कोशिस की, तुम्हे दर्द हुआ होगा , उसका एहसास तब न था अब है, अजीब मानसिक दौर से गुजरा रहा था , शायद खुद की भी एहसास करने की शक्ति ख़त्म हो रखी थी , तुम चली गयी थी जिंदगी से मेरे , मैं खुद को सम्हाल नही पाया , कुछ समय के लिए, कोई भी कई साल के रिश्ते को ऐसे खोते नही देख सकता , मैं भी उनमे से एक था , पर वक्त सबसे बेहतर मरहम है , और बिना वजह बात बात पर गालियाँ देने वाले दोस्त सबसे अच्छे डॉक्टर |
कुछ रोज पहले तुम्हारे मेसेज मिले , पता चला तुम उस गिटार वाले के साथ बंगलोर शिफ्ट हो गयी हो , ख़ुशी हुई जानकर, कोई निर्णय तो साहस के साथ लिया था तुमने, तुम सफल हो खुश हो मेरे लिए इससे बढकर कोई ख़ुशी नही हो सकती है, मैं भी 6-7 महीने पहले रिसर्च कम्पलीट करके लखनऊ आ कर बैठा हूँ, सफलता असफलता के मायने की खोज में , बस किसी रोज यूँ ही उन रास्तों में टहल आता हूँ , जहाँ कभी हम, तुम्हारी कनिष्ठा को थामे मीलो और घंटो का सफ़र किया करते थे, कभी कोई कविता , कहानी किस्सा लिख लेता हूँ तो कभी कोई किस्सा आधे पन्ने भर लिख कर फाड़ भी देता हूँ, कभी यूँ ही अकेला बैठा बड़े ध्यान से अपने अंगूठे और तर्जनी देखता हूँ कि कोई रंग वो जो तितलियाँ छोड़ जाती थी बचपन में , कहीं बाकि तो नही |
बस ये मेरा आखिरी शेर तुम्हारे लिए
नफरतों से कहीं की बादशाहत नही मिलती
कहीं कुछ बात तो जरुर है मोहब्बत में भी... !!!
तुम्हारा

Tuesday, January 12, 2016

उपसंहार

 उपसंहार

हर एक कहानी उपसंहार पर ही ख़त्म होती है भले ही कहानी का अंत दुखद हो या सुखद | लेकिन जब कहानी तुम से शुरू होकर आप पर ख़त्म हो रही हो तो सिर्फ उस कहानी के लेखक को ही ये अंदाजा हो सकता है कि कहानी का प्रतिफल क्या है ? कहानी की परिणति क्या है ? कहानी के नायक नायिका भी उसका अर्थ निकलने में सक्षम नही हो पाते है | सिर्फ वैचारिक अवधारणा के आधार पर स्वेच्छा से विभिन्न अर्थ निकाल कर उन अर्थों का विश्लेषण कर , व्याख्या कर तात्कालिक ढंग से खुश तो हुआ जा सकता है पर सच , हकीकत पर पर्दा पड़ा रहता है | हाँ ,पर वो कहानी वैचारिक मूल्यों पर अपने श्रेष्ठता की छाप छोड़ देती है पन्नो में, दिल मे, दिमाग में , मन में मस्तिष्क में | शायद यही कारण होता है कि ऐसे में उस कहानी को बार बार पन्ने पलट पढने का मन करता है और शायद ही कभी संतृप्त हुआ जा सके | फिर ऐसी कहानियों से स्वयं की लम्बी या कहें स्थायी रिश्तेदारी महसूस होने लगती है, फिर वही सिलसिला चल निकलता है स्वयं की तुलना और हजारो लाखों प्रश्नों का जो फ़ोन मैसेज तस्वीरो से होते हुए फिर उपसंहार पर आ अटकता है | सभी प्रश्न निरुत्तर कर देते है मुझे ! सभी सवाल मौन कर देते है मुझे मैंने एसा किया था तुमने एसा किया था !मैंने कुछ पाने के लिए कुछ खोने का प्रयास नही किया था ! मैंने सोचा तो था या तुम अनजान तो नही थी ! पर उपसंहार कहां है इन सवालों में ?सिर्फ सवाल हैं जवाब कहाँ है ? कहाँ है किसी कहानी का अंत या हमे तो ये कहना चाहिए कहाँ हैं कहानी का प्रारंभ ? मतलब साफ है जब प्रस्तावना भूमिका साफ नही है तो उपसंहार का सवाल कहाँ है
या फिर जो भी है तस्वीरो में तेरा चेहरा सवाल है मेरे लिए ....................तुम्हारी गहरी स्वच्छ काली ऑंखें ज्यों आज भी पूँछ लेती है “क्या तुम कविता लिखते हो “ कुछ जवाब होता है ऐसे सवालों का ,कहानियों में तो बिलकुल नही होता मेरे पास भी नही था हाँ पर मेरी ऑंखें ये जरुर जता देती है कि वो डर रही है तुम्हारे सामने इस तरह आ जाने से | क्या सच में तुम्हार व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था ? हाँ शायद .... तुम्हारे चेहरे की मुस्कान सब कुछ जीत लेने की ताकत रखती है जो बरबस तेरी हर तस्वीर में दिखाई दे रही है और मेरी हंसी को भी मजबूर कर देती है पर इससे फर्क क्या पडता है कि तुम ही तो वो पहली शख्स थी जिसने मेरी छोटी सी सफलता पर बधाई दी थी और अपनी गुस्ताखी कैसे भूलूं तुम्हे ढंग से धन्यवाद भी नही बोल पाया था हाँ पर तुम्हारी जिंदगी में तुम्हे पहली बार इस तरह के घटनाक्रम का सामना करना पडा था 5 जनवरी तारीख भी याद है मुझे ,विषय याद नही ! नक़ल करना याद है पर उस अध्यापक का नाम याद नही | तुमसे सवाल हुए मुझसे सवाल हुए पर गलती तुम्हारी नही थी अति उत्साह था मेरा नक़ल करने के लिए कॉपी ही उठा ही लिया था कॉपी करने को ,पकड़ा गया था जैसा होता है | मैने तुम्हारा बचाव करना चाहा तुमसे माफ़ी भी मांगी तुमने कहा ‘इसकी जरुरत नही है’ ,पर हाँ तुम्हारे स्वाभाव से पता नही चल रहा था शर्म महसूस करूं या गर्व | तुम्हारा स्वाभाव फिर से सवालों में खड़ा कर गया था मुझे तुम्हारी सरलता तुम्हारी विनम्रता मुझे शर्म महसूस करा रही थी मुझे कि मेरे कारण तुम्हे एसा सुनना पडा था पर मेरी निर्लज्जता इस बात पर गर्व महसूस करा रही थी ‘चलो तुमसे थोडा करीब तो आया ‘|
फिर भी तुमसे कहूँ इन्तजार की इन्तहा भी होती है पर मुझे पता नही इंतजार अच्छा लगता था ,तुम्हारा तुम्हारी तस्वीर , तुम्हारा चेहरा ,तुम्हारे मैसेज तुम्हारी मुस्कान तुमसे जुडी हर की यहाँ तक कि तुम्हारे नाम को सुनने का इन्तजार भी अच्छा लगता है| वो कविता याद है तुम्हे जो कभी तुझे बिना डरे पहली बार सुनी थी , शायद नही होगी फिर से कहता हूँ
दिन के उजियारे में भी जब दिल पर तेरी यादें भारी पड़ती है |
सच कहता हूँ तब ही रातें सबसे घनी अँधेरी लगती है ||
ऐसे में बस तुझको , अपना कहने का मन करता है
तभी अकेले संग तेरे दो पल चलने को जी करता है
जब यार छेड़ते है मुझको , क्यूँ हर पल तेरी यादें होती है
सच कहता हूँ न जाने , क्यूँ तेरी यादें सबसे प्यारी होती है |||||
दिन के उजियारे में भी जब दिल पर तेरी यादें भारी पड़ती है |
सच कहता हूँ तब ही रातें सबसे घनी अँधेरी लगती है ||
जब रात जागते रात जागते कविता लिखते कटती है
जब अखियों को बस तेरी बस तेरी सुधि रहती है
जब दिल पर तेरी दिलकश आवाजों की मधुर बांसुरी बजती है
सच कहता हूँ तब बृज की गलियां सूनी सूनी लगती है ||||||
दिन के उजियारे में भी जब दिल पर तेरी यादें भारी पड़ती है |
सच कहता हूँ तब ही रातें सबसे घनी अँधेरी लगती है ||
इस कविता में भी आपने पात्र खोजने शुरू कर दिए थे ,तुम हो , हम हो फिर किसी तीसरे का वजूद हो सकता है क्या ?भावनाए अक्सर इसी तरह का खेल खेलती है जब छुपाने की कोशिश करो तब लोग नासमझ हो जाते है और अगर भावनाए दिखाने की कोशिश करो जताने की कोशिश करो तो लोग आपको नासमझ समझते है पर एक समझने योग्य है कि लोग अक्सर भावनाओ की क़द्र नही करते शब्दों की करते है तुमने तो उसकी भी कोशिश नही थी |
पर प्रश्न वही उठता है इस सबसे कहीं कहानी बनती है | कहानी क्या भूमिका या प्रस्तावना भी नही बनती तो क्या लिख दूँ की कहानी पूर्ण हो जाये कोई ऐसा ट्विस्ट भी तो नही है कि मसाला सम्पूर्ण हो जाये कहानी परिणति तक पहुच जाये | बस हाँ मन की संवेदनाये तुम भी पढ़ती थी हम भी पढ़ते थे | भावो का अलंकरण हम भी देखते थे तुम भी देखती थी | आँखों से मौन सवाल तो तुम भी पूछती थी हम भी पूछते थे पर लफ्ज लब पर क्यूँ नही आते ...पता नही पर आजकल कहानी मौन किस्सों पर नही लिखी जाती | निशब्द स्वीकृतियों पर भी किस्से नही बनते | बस वो शायरी याद आ गयी जो तेरे किसी प्रश्न के जवाब पर मैने भेजी थी पर उसका अर्थ भी मुझे ही समझाना पड़ा था |
“मेरे लफ्जों की कीमत बढ़ जाये थोड़ी सी
ये बातें पुरानी बहाने हैं उसी के
फकत मेरे लफ्ज तो विरले हुए इतने
कि कुछ कहने जाऊ तो उड़ जातें है हंसी में “
तुमने अर्थ पूछा था मैंने सविस्तार बतलाया तो तुमने बड़ी संजीदा टिप्पणी लिख दी थी
“आपके शब्दों की कीमत कोई कम नही है मेरे लिए “
बस अपने इतना कह दिया काफी था मेरे लिए | अब किसी भूमिका किसी प्रस्तावना की जरुरत नही थी इस कहानी को | और रही बात उपसंहार की, तो उपसंहार तो किसी कहानी किसी निबंध किसी चर्चा का निष्कर्ष हो सकता है और शायद अभी ये कहानी के अंत का समय तो बिलकुल नही है | 

हाँ संवेदनाहीन हूँ मैं

हाँ संवेदनाहीन हूँ मैं
हाँ संवेदनाहीन हूँ मैं
कितना
शायद इतना 
कि याद नही है मुझको
कब सिसकियों ने
मांगी थी पनाह
आखिरी बार मुझसे |
ना याद है शायद
वो रुंधा हुआ गला
ना आंख से गुजरा
या ठहरा हुआ
कोई आखिरी आंशू |
शायद संवेदनाहीन हूँ मैं
हाँ सच है ये भी
ना रोया था तब
जब खोया था
किसी अपने को मैंने
या खोया था उसको
जिसे अपना कहना
नही आया मुझको |
हाँ सच है,
संवेदनाहीन हूँ मैं |
हाँ संवेदनाहीन हूँ मैं |........