Thursday, January 30, 2014

मैं तेरा हूँ आज भी.....


मैं तेरा हूँ आज भी.....

बहुत से ख्वाब मैंने
टूटते बिखरते देखे है
इन आँखों से 
तुम भी एक हिस्सा हो 
उसी में से किसी एक का
न चाह कर भी ये कड़ी टूट सी गयी थी 
घडी की सुइयां और रातें भी
हमसे रूठ सी गयी थी 
न बदनीयत था मैं 
न मेरी ऑंखें न मेरी बातें 
हाँ बदहवास था मै, 
मेरे जज्बात मेरा प्यार
..............
मै सही था वर्षों से तुम मेरी नही थी कभी 
मै तेरा हूँ आज भी.......
बस एक नया ख्वाब फिर से 
मेरी डायरी कि शोभा बडा रहा है
पुरानो कि तरह पूरा होने के इंतजार में...
..तुम्हारे इंतजार में..... विवेक सचान 

http://www.poemhunter.com/poem/-5097/

Wednesday, January 29, 2014

क्या तुम कविता करते हो...?

तुम्हारा सवाल कौधता है जेहन में मेरे...
तब से 
जब से
पूछा था तुमने 'क्या तुम कविता करते हो..'
तब जवाब नही था पास मेरे 
निशब्द था मै 
मौन था मैं
अपनी भावनाओ की तरह 
पर आज कहता हूँ 
शब्द शब्द को चुनता हूँ...
मैं नाम से तेरे................
हाँ मै कविता करता हूँ..
बस इंतजार में तेरे....
हाँ मैं कविता करता हूँ बस इंतजार में तेरे......
मेरा हर एक शब्द तेरा गुलाम है...
हर नफस में बस तेरा नाम है....
कुछ सवाल और उनके जवाब 
कभी नही सुना था मैंने..
तुम जो उतर गयी थी नजरों में..
फिर कोई और नही चुना था मैंने...
जिंदगी में शब और सहर का...
अब कोई ठिकाना ना था...
रातें बीती थी सुधियो में या सपनों में तेरे.......
दिन कहते बीत गए मै हूँ इंतजार में तेरे.....
हाँ मै हूँ इंतजार में तेरे....
............................विवेक सचान..... 

Thursday, January 16, 2014

मेरी डायरी के अवशेष

  मेरी डायरी के अवशेष

मेरे ओंठों को खबर नही

दिल में गम हजार रहते है...

तुमने देखा है बस हँसतें हुए चेहरे को
आंख तो नाम बेहिसाब रहते है..!!!!
कदम लडखडा ही जाते 
जब आप याद आते है..,
हम चलते है खुद को सम्हाल कर
वो तो बस जब आप साथ रहते थे...!!!
मयखाने में गूंजते है अल्फाज सबके 
मदहोश रहकर भी तेरा नाम कहते है..!!
फिर से पिला दो नजरों से आज तुम
साखी पिलाये प्याली से तो हम बदनाम होते है..!!!

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Wednesday, January 15, 2014

लहर

      लहर
वर्ष २०१२ अक्टूबर महीना स्थान जैमपोर बीच दमन | कुछ लोग  आ रहे थे अपना और अपने साथी का नाम लिखते उनका मानना था की पानी की आती  जाती  लहर  के साथ अगर उनका नाम नही मिटता तो उनका रिश्ता स्थायी और LONGLASTING होता है ...मैंने कुछ लिखा था |

"मैने रेत पर लिखा था तेरा नाम
वो मिट गया इक लहर के साथ
पर ये यादेँ नही है रेत जैसी 
न वक्त का मिजाज है कुछ लहर जैसा॥"

Tuesday, January 14, 2014

उपसंहार एक कहानी

            उपसंहार
हर एक कहानी उपसंहार पर ही ख़त्म होती है भले ही कहानी का अंत दुखद हो या सुखद | लेकिन जब कहानी तुम से शुरू होकर आप पर ख़त्म हो रही हो तो सिर्फ उस कहानी के लेखक को ही ये अंदाजा हो सकता है कि कहानी का प्रतिफल क्या है ? कहानी कि परिणति क्या है ? कहानी के नायक नायिका भी उसका अर्थ निकलने में सक्षम नही हो पाते है |सिर्फ वैचारिक अवधारणा के आधार पर स्वेच्छा से विभिन्न अर्थ निकाल कर उन अर्थों का विश्लेषण कर व्याख्या कर तात्कालिक ढंग से खुश तो हुआ जा सकता है पर सच हकीकत पर पर्दा पड़ा रहता है |हाँ पर वो  कहानी   वैचारिक मूल्यों पर अपने श्रेष्ठता की छाप छोड़ देती है पन्नो में दिल मे दिमाग में , मन में मस्तिष्क में | शायद यही कारण होता है कि ऐसे में उस कहानी को बार बार पन्ने पलट पढने का मन करता है और शायद ही कभी संतृप्त हुआ जा सके |फिर ऐसी कहानियों से स्वयं की लम्बी या कहें स्थायी रिश्तेदारी महसूस होने लगती है, फिर वही सिलसिला चल निकलता है स्वयं की तुलना और हजारो लाखों प्रश्नों का जो फ़ोन मैसेज तस्वीरो से होते हुए फिर उपसंहार पर आ अटकता है | सभी प्रश्न निरुत्तर कर देते है मुझे ! सभी सवाल मौन कर देते है मुझे !मैंने एसा किया था तुमने एसा किया     था !मैंने कुछ पाने के लिए खोने का प्रयास नही किया था ! मैंने सोचा तो था या तुम अनजान तो नही थी ! पर उपसंहार कहां है इन सवालों  में ?सिर्फ सवाल हैं जवाब कहाँ है ? कहाँ है किसी कहानी का अंत या हमे तो ये कहना चाहिए कहाँ हैं कहानी का प्रारंभ ? मतलब साफ है जब प्रस्तावना भूमिका साफ नही है तो उपसंहार का सवाल कहाँ है
      या फिर जो भी है तस्वीरो में तेरा चेहरा सवाल है मेरे लिए ..तुम्हारे गहरी स्वच्छ काली ऑंखें ज्यों आज भी पूँछ लेती है “क्या तुम कविता लिखते हो “ कुछ जवाब होता है ऐसे सवालों का ,कहानियों में  तो बिलकुल नही होता मेरे पास भी नही था हाँ पर मेरी ऑंखें ये जरुर जता देती है कि वो डर रही है तुम्हारे सामने इस तरह आ जाने से | क्या सच में तुम्हार व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था ? हाँ शायद .... तुम्हारे चेहरे की मुस्कान सब कुछ जीत लेने की ताकत रखती है जो बरबस तेरी हर तस्वीर में दिखाई दे रही है और मेरी हंसी को भी मजबूर कर देती है पर इससे फर्क क्या पडता है कि तुम ही तो वो पहली शख्स थी जिसने मेरी छोटी सी सफलता पर बधाई दी थी और अपनी गुस्ताखी कैसे भूलूं तुम्हे ढंग से धन्यवाद भी नही बोल पाया था हाँ पर तुम्हारी जिंदगी में तुम्हे पहली बार इस तरह के घटनाक्रम का सामना करना पडा था 5 जनवरी तारीख भी याद है मुझे ,विषय याद नही ! नक़ल करना याद है पर उस अध्यापक का नाम याद नही | तुमसे सवाल हुए मुझसे सवाल हुए पर गलती तुम्हारी नही थी अति उत्साह था मेरा नक़ल करने के लिए कॉपी ही उठा ही लिया था कॉपी करने को ,पकड़ा गया था जैसा होता है | मैने तुम्हारा बचाव करना चाहा तुमसे माफ़ी भी मांगी तुमने कहा ‘इसकी जरुरत नही है’ ,पर हाँ तुम्हारे स्वाभाव से पता नही चल रहा था शर्म महसूस करूं या गर्व | तुम्हारा स्वाभाव फिर से सवालों में खड़ा कर गया था मुझे तुम्हारी सरलता तुम्हारी विनम्रता मुझे शर्म महसूस करा रही थी मुझे कि मेरे कारण तुम्हे एसा सुनना पडा था पर मेरी निर्लज्जता इस बात पर गर्व महसूस करा रही थी ‘चलो तुमसे थोडा करीब तो आया ‘|
फिर भी तुमसे कहूँ इन्तजार की इन्तहा भी होती है पर मुझे पता नही इंतजार अच्छा लगता था ,तुम्हारा तुम्हारी तस्वीर , तुम्हारा चेहरा ,तुम्हारे मैसेज तुम्हारी मुस्कान तुमसे जुडी हर की यहाँ तक कि तुम्हारे नाम को सुनने का इन्तजार भी अच्छा लगता है| वो कविता  याद है तुम्हे जो कभी तुझे बिना डरे पहली बार सुनी थी , शायद नही होगी फिर से कहता  हूँ

दिन के उजियारे में भी  जब दिल पर तेरी यादें भारी पड़ती है |
सच कहता हूँ तब ही रातें      सबसे घनी अँधेरी लगती है ||
ऐसे में बस तुझको ,  अपना     कहने का   मन करता है
तभी अकेले संग तेरे दो पल चलने को जी करता है
जब यार छेड़ते है मुझको , क्यूँ हर पल तेरी यादें होती है 
सच कहता हूँ न जाने , क्यूँ तेरी यादें सबसे प्यारी होती है |||||

दिन के उजियारे में भी  जब दिल पर तेरी यादें भारी पड़ती है |
सच कहता हूँ तब ही रातें      सबसे घनी अँधेरी लगती है ||

जब रात जागते रात जागते कविता लिखते कटती है
जब अखियों को  बस तेरी  बस तेरी सुधि रहती है
जब दिल पर तेरी दिलकश आवाजों की मधुर बांसुरी बजती है 
सच कहता हूँ तब बृज की गलियां सूनी सूनी लगती है ||||||

दिन के उजियारे में भी  जब दिल पर तेरी यादें भारी पड़ती है |
सच कहता हूँ तब ही रातें      सबसे घनी अँधेरी लगती है ||

इस कविता में भी अपने पात्र खोजने शुरू कर दिए थे ,तुम हो , हम हो फिर किसी तीसरे का वजूद हो सकता है क्या ?भावनाए अक्सर इसी तरह का खेल खेलती है जब छुपाने की कोशिश करो तब लोग नासमझ हो जाते है और अगर भावनाए दिखाने की कोशिश करो जताने की कोशिश करो तो लोग आपको नासमझ समझते है पर एक समझने योग्य है कि लोग अक्सर भावनाओ की क़द्र नही करते शब्दों की करते है तुमने तो उसकी भी कोशिश नही थी |
पर प्रश्न वही उठता है इस सबसे कहीं कहानी बनती है | कहानी क्या भूमिका या प्रस्तावना भी नही बनती तो क्या लिख दूँ की कहानी पूर्ण  हो जाये कोई ऐसा ट्विस्ट भी तो नही है कि मसाला सम्पूर्ण हो जाये कहानी परिणति तक पहुच जाये | बस हाँ मन की संवेदनाये तुम भी पढ़ती थी हम भी पढ़ते थे | भावो का अलंकरण तुम हम भी देखते थे तुम भी देखती थी | आँखों से मौन सवाल तो  तुम भी पूछती थी हम भी पूछते थे पर लफ्ज लब पर क्यूँ नही आते ...पता नही   पर आजकल कहानी मौन किस्सों पर नही लिखी जाती | निशब्द स्वीकृतियों पर भी किस्से नही बनते | बस वो शायरी याद आ गयी जो तेरे किसी  प्रश्न के जवाब पर मैने  भेजी थी पर उसका अर्थ भी मुझे ही समझाना पड़ा था |
            “मेरे लफ्जों की कीमत बढ़ जाये थोड़ी सी
             ये बातें    पुरानी   बहाने  हैं उसी के 
            फकत मेरे लफ्ज तो विरले हुए इतने
            कि कुछ कहने जाऊ तो उड़ जातें है हंसी में “
तुमने अर्थ पूछा था मैंने सविस्तार बतलाया तो तुमने बड़ी संजीदा टिप्पणी लिख दी थी
“आपके शब्दों की कीमत कोई कम नही है मेरे लिए “

बस अपने इतना कह दिया काफी था मेरे लिए | अब किसी भूमिका किसी प्रस्तावना की जरुरत नही थी इस कहानी को | और रही बात उपसंहार की तो उपसंहार तो  किसी कहानी किसी निबंध किसी चर्चा का निष्कर्ष हो सकता है  और शायद अभी ये कहानी के अंत का समय तो बिलकुल नही है |  

Monday, January 13, 2014

सियासत और इश्क

इश्क तुमने हर सलीके भूल रखे हैं.....
लग रहा है तूने भी सियासत से नाते जोड़ रखे है....!!!!!!!!!!